छात्र आन्दोलन के ये सब से बुरे दिन हैं| छात्र आन्दोलनों का यह विचलन क्यों हैं अगर इसका विचार करें तो हमें इसकी जड़ें हमारी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में दिखाई देगी| छात्र राजनीती के मूल्यों का स्थान आदर्श विहीनता ने ले लिया| कमोवेश समस्त छात्र संगठन और छात्र नेता राजनितिक दलों की चेरी बन गये हैं| डी.एस.यू. के कोर ग्रुप की एक सदस्य बनोज्योत्सना का कहना हैं की बड़ी छात्र संघ पार्टियाँ जैसे ए.बी.वी.पी. या एन.एस.यू.आई. पार्टियाँ बीजेपी और कांग्रेस की शाखाएँ हैं जो इन राष्ट्रीय पार्टियों को मजबूती प्रदान करने और उनकी विचार धारा का प्रचार-प्रसार करना है| छात्र संघ के एजेंडा बभी अब राजनितिक पार्टियाँ तय कर रही हैं|
वहीं दूसरी ओर वाई.फॉर.ई. के अमीत जी का कहना है कि ये समूह किसी परिवर्तन का वाहन न बनकर अपनी ही पार्टी का साइनबोर्ड बनकर रह गये हैं| इनकें सपने, आदर्श सब कुछ कहीं और तय होते हैं| छात्र संघ कि बदलती भूमिका और घटती प्रासंगिकता ने छात्रो के मन से उनके प्रति सहान-भूति खत्म कर दी है| छात्र संघ चुनावों को उन मुख्मंत्रियों ने भी प्रतिबंधित कर रखा है जो छात्र आन्दोलन से ही जन्में हैं| ऐसा लगता है कि छात्र संघ अब आम छात्रों कि शैक्षणिक और सांस्कृतिक प्रतिभा के उन्नयन के माध्यम नहीं रहे| वे अराजक तत्वों और माफियाओं के अखाड़े बन गये हैं| इस बात को मानते हुए अमीत जी कहते है इसका कारण विश्वविद्यालयों में चुनाव न होना है| आगे वे कहते है क्या आप उम्मीद कर सकते हैं आज के नौजवान दुबारा किसी जयप्रकाश नारायण के आसन पर आहान पर दिल्ली कि कुर्सी पर बैठी मदांध सत्ता को सबक सिखा सकते हैं|
हमारा मानना है कि छात्र आन्दोलन के दिन तभी बहुरेंगे जब परिसरों में दलील राजनीति के बजाये छात्रों का स्वविवेक, उनके अपने मुद्दे, शिक्षा, बेरोजगारी, महंगाई के सवाल एक बार उनके बीच होंगे| छात्र राजनीति के वे सुनहरे दिन तभी लौटेंगे जब परिसरों से निकलने वाली आवाज़ ललकार बनेगी|